Saturday, September 14, 2013

ख़त



मैं पलंग पे लेटा हुआ था. वो आये 'कैसे हो मियां?' औपचारिक मुस्कुराये. मैंने अपना पांव हाथों से उठा के बैठने की कोशिश की. 'नहीं, नहीं लेटे रहो, और ये पकड़ो.' उन्होंने एक लिफाफा मेरी और बढ़ा दिया. 'गवर्मेंट ने सेवन लाख की जो घोषणा की थी, उसकी डिटेल्स है. कुछ दिन में पैसे तुम्हारे अकाउंट में पहुँच जायेंगे.' मैंने लिफाफा सायमा को थमा दिया. '...और हाँ, टीवी पर 'फारेस्ट गम्प' और 'शाव्शंक रिडेम्पशन' किस्म की फिल्म देखते रहना अच्छा लगेगा. उन्होंने जाते-जाते कहा. 'शुक्रिया...' मैंने धीरे से कहा और अपना घुटनों तक कटा पांव सरकाने की कोशिश की.

सायमा ने दरवाजा बंद किया. वो मेरे पास आई, मैंने उसे लिफाफा थमा दिया. 'इसका अब क्या करेगें?' उसने धीरे से कहा फिर मेरे से लिपट गई. 'सब ठीक हो जाएगा सायमा, बस एक पैर ही तो कटा है, जिंदा तो हूँ न.' मैंने उसे पांचवें दिन और पचासवीं बार एक ही वाक्य दुहराते हुए दिलासा दी. वो मेरे से चिपकी रही. मैंने उसके बालों को सहलाया. 'मुझे तुमसे कुछ कहना है सायमा.' 'हाँ कहो,' उसने सर उठाते हुए कहा. मैंने तकिये के नीचे से निकालकर उसके हाथ में एक लिफाफा थमा दिया.
'पढो.'
'उर्दू में है ये, किसने भेजा? अच्छा पढ़ के सुनाती हूँ.'

'अब्बू, यहाँ सब खैरियत से है. मैं अच्छे से पढ़ रही हूँ, हर रोज़ स्कूल भी जाती हूँ. इस बार रोज़े नहीं रखे थे, अम्मी ने कहा है और बड़ी हो जाओ तो रखना. नये कपडे लेने थे लेकिन अम्मी कहती है आपके भेजे पैसे ज्यादा दिन नहीं चलते और दादी का इलाज़ भी कराना पडता है. इस बार ज्यादा पैसे भेजना. मैंने कहा था न इस बार अच्छे से लिखना सीख जाउंगी, देखो सीख गई. अब सदीक़ स्कूल में एडमिशन दिला दो तो और अच्छे से पढूंगी. अम्मी कहती उसके पास साल भर की फीस भरने पांच हज़ार रूपये नहीं है. -आपकी नाजिया'

'रंजीत, किसने लिखा ये? तुम्हारे पास कैसे आया?' '
मुझे नहीं अनवर अली के लिए आया था'
'कौन अनवर अली?'
'पाकिस्तानी जिसे मैंने मारा था. उसकी जेब में था ये. मैं चेक कर रहा था तब मुझे मिला.'
'तो....?'
'मैं नाजिया के बाप का कातिल हूँ.'
'तुमने जानबूझ के तो नहीं किया न रंजीत, अगर तुम नहीं मारते तो वो तुम्हें मार देता. देखो पांव तो काटना ही पड़ा न.'
'लेकिन....'
 'लेकिन क्या? तुम्हारी गलती नहीं है, अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं और रिद्मा कैसे रहते? रिद्मा तो तीन साल की उम्र में ही अनाथ हो जाती न. पता नहीं तुम क्या सोच रहे हो.' सायमा थोडा गुस्से में बोली.
'अगर हम इन सात लाख में से पांच हज़ार अनवर के घर भेज दे तो? हमारी रिद्मा के जैसे उसकी नाजिया भी पढ़ लेगी.' मैंने धीरे से कहा.

सायमा ने थोड़ी देर ख़ामोशी से एक टक मेरी तरफ देखा. फिर 'मेजर रंजीत तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है.' कह के  मेरे से  चिपक गई. 'मेरी और अनवर की कोई दुश्मनी नहीं थी....सियासत की थी. सैनिक हाथों में हथियार नहीं लेना चाहते सायमा, सियासतें उन्हें मजबूर करती हैं.' मैंने उसे चूमते हुए कहा.

अगले पंद्रह साल तक नाजिया को पैसे मिलते रहे और एक ख़त भी, जिसपे सिर्फ 'सॉरी बेटा' लिखा होता था.


[चित्र 2002 में प्रदर्शित 'वी वर सोल्जर' के अंतिम दृश्यों में से एक दृश्य का है. चित्र के साथ 'सब टाइटल्स' पे ज़रूर ध्यान दें.]

4 comments:

SandWich Me said...

bahut umda..... bahut achcha laga...thank you :)

Yash said...

Its a short story but very heart touching...You reminded me one of the all time great stories of Hindi literature...
"Usne Kaha Tha" by Chandradhar Sharma Guleri...Although genre was different but after reading both the story one will feel the same...a duty/responsibility/sacrifice whether it is because of love/humanity or whatever...always makes the life meaningful..and the one immortal..

Yash said...

Its a short story but very heart touching...You reminded me one of the all time great stories of Hindi literature...
"Usne Kaha Tha" by Chandradhar Sharma Guleri...Although genre was different but after reading both the story one will feel the same...a duty/responsibility/sacrifice whether it is because of love/humanity or whatever...always makes the life meaningful..and the one immortal..

Anonymous said...

good one.. keep it up..:)